अकबर की धार्मिक नीति :व्याख्या एवं मूल्यांकन
अकबर की धार्मिक नीति : विभिन्न चरण
अकबर की महानता का आधार उसकी धार्मिक नीति ही थी. इससे पहले सल्तनतकालीन शासक किसी उदार धार्मिक दृष्टिकोण से प्रेरित नहीं दिखे थे. यद्यपि भारत में द्वितीय अफगान साम्राज्य के संस्थापक शेरशाह द्वारा कुछ प्रयास अवश्य किया गया, तथापि इस दिशा में अकबर की सोच का एक विस्तृत आयाम था, जो उसकी धार्मिक नीति में दृष्टिगोचर होता है. अकबर की धार्मिक नीति के विभिन्न पक्षों को तीन चरणों में बांटकर समझा जा सकता है.
प्रथम चरण [1556-1573]
1556 में राज्याभिषेक के बाद 1560 ई. तक अकबर अपनी प्रारंभिक समस्याओं के निराकरण में व्यस्त रहा. तत्पश्चात अकबर के विभिन्न दृष्टिकोणों को देखा जा सकता है, जो विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित थे, जैसे- अकबर की राजपूत नीति, अकबर की धार्मिक नीति एवं अकबर की दक्षिण नीति आदि. यहां हम अकबर की धार्मिक नीति के विभिन्न पक्षों को समझने का प्रयास करते हैं.
अकबर की धार्मिक नीति के प्रथम चरण में 1556-1573 की अवधि को लिया जा सकता है. सत्ता ग्रहण करने के कुछ वर्षों बाद ही अकबर ने अपनी उदारता का परिचय दिया. 1563 ई. में हिन्दुओं से वसूल किया जाने वाला तीर्थ यात्रा कर समाप्त कर दिया. इस तीर्थ यात्रा कर से करोड़ों की आमदनी होती थी जो राज्य के राजस्व के लिहाज से महत्वपूर्ण था.
इससे पूर्व अकबर ने बागी ग्रामीणों के बीवी-बच्चों को गुलाम बनाने की मनाही कर दी थी. अकबर की उदार धार्मिक नीति का परिचय इस बात से भी होता है कि अकबर ने राजपूत राजकुमारियों से , उन्हें पहले मुसलमान बनाए बिना, वैवाहिक संबंध स्थापित किए और साथ ही राजमहल में इन्हें अपने धर्म का आचरण करने की पूरी छूट प्राप्त थी. अकबर ने 1562 में राजपूत राजकुमारी जोधाबाई से विवाह किया. बीरबल, जोकि सम्राट के प्रिय पात्रों में से एक था, उसे अकबर के साथ यात्रा करने के दौरान अपने आराध्यों की प्रतिमाएँ रखने पर किसी तरह की कोई पाबंदी नहीं थी.
1564 ई. में अकबर द्वारा हिन्दुओं पर आरोपित धार्मिक कर जजिया को समाप्त कर दिया गया. यद्यपि जजिया को पुन: आरोपित किया गया, लेकिन अन्तिम रूप से इसे 1579 में समाप्त कर दिया गया. इस प्रकार, अकबर द्वारा इस अवधि में उदार धार्मिक नीति का अनुसरण किया गया.
दूसरा चरण [1573-1581 ई. ]
यह चरण चर्चा-परिचर्चा और आत्मनिरीक्षण से संबंधित चरण था, जिसने अकबर के धार्मिक विचारों को गहरा प्रभावित किया. बाद के काल में इसने उसकी राज्य संबंधी नीतियों को भी स्पष्ट रूप से प्रभावित किया.
इबादतखाना [प्रार्थना गृह ]
(स्थापना- 1575 ई., फतेहपुर सीकरी)
अकबर जिज्ञासु प्रवृत्ति का था और उसमें बाल्यकाल से ही उदार सूफी चिंतक हाफिज मौलाना रूम एवं मसनवियों के प्रति गहरी रूचि थी. सम्राट के रूप में अकबर ने ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती व अन्य कई सूफी सन्तों की दरगाह की यात्रा भी की. आध्यात्मिक पिपासा की शान्ति के लिए अकबर ने फत्हपुर सीकरी में 1575 में इबादतखाने की स्थापना की. जैसा कि अकबर ने इबादतखाने में एकत्रित हुए लोगों से कहा था कि इबादतखाने की बहस का उसका उद्देश्य 'सत्य की खोज' है. इबादतखाने में प्रत्येक बृहस्पतिवार को संध्या के समय धार्मिक विचार-विमर्श हुआ करता था.
यद्यपि आरंभ में इबादतखाने की बहसों अथवा विचार-विमर्श में केवल मुसलमानों को ही भाग लेने की इजाजत थी, लेकिन 1578 ई. में विभिन्न धर्मावलंबियों के लिए इबादतखाने के दरवाजे खोल दिए गए.अब हिन्दू, जैन, पारसी, ईसाई- सभी इबादतखाने में भाग लेने लगे. इसका परिणाम यह हुआ कि अब उन प्रश्नों को भी बहस में उठाया जाने लगा, जिन प्रश्नों पर मुसलमानों के एकमत थे.
[इबादतखाने में भाग लेने वाले विभिन्न आचार्य]
*हिन्दू- देवी एवं पुरुषोत्तम
*जैन- हरिविजय सूरी, जिनचन्द्र सूरी, विजयसेन सूरी एवं शान्तिचन्द सूरी
*ईसाई- एकावीवा एवं मोंसेरात
*पारसी- दस्तूर मेहरजी राणा
इतिहासकार आर. पी. त्रिपाठी के अनुसार, 'इबादतखाने ने अकबर को यश के बदले अपयश ही दिया.' अकबर को इन बहसों की निर्रथकता का बोध हो गया और उसने 1582 में इसे पूरी तौर पर बंद करर दिया.'लेकिन इबादतखाने की बहस को कुछ इतिहासकार निरर्थक नहीं मानते. उनके अनुसार इबादतखाने की बहस ने अकबर के धार्मिक विचारों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इससे अकबर को यह बोध हुआ कि सभी धर्मों में सत्य के तत्व विद्यमान हैं जो सभी मनुष्य को एक ही परम यथार्थ तक ले कर जाते हैं. यह अकबर के धार्मिक विचारों के विकास का वह महत्वपूर्ण चरण था, जिसने अकबर को सुलह-ए-कुल जैसी अवधारणा तक पहुँचाया.
महजर की घोषणा [ 1579]
अकबर ने समस्त धार्मिक मामलों को अपने नियंत्रण में करने हेतु 1579 ई. में मजहर की घोषणा की. इसने उसे धार्मिक मामले में सर्वोच्च बना दिया. अकबर द्वारा
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